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संस्मरण: जब मैंने पहली बार स्कूल बंक किया Memoir: When I First Bunked School

दोस्तों, जैसा कि आप सभी जानते हैं कि स्कूल से बंक लगभग सभी बच्चे किया करते हैं। शायद उनमें से कई अपवाद भी रहे हों जो स्कूल से बंक यानि स्कूल...



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दोस्तों, जैसा कि आप सभी जानते हैं कि स्कूल से बंक लगभग सभी बच्चे किया करते हैं। शायद उनमें से कई अपवाद भी रहे हों जो स्कूल से बंक यानि स्कूल न जाकर इधर उधर दिनभर घूमते हों। मैं भी इसी तरह का छात्र रहा हूं। कभी स्कूल बंक नहीं किया। लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि अनजाने में ही यह हो गया। 

बात उस समय की है जब मैं शायद पांचवीं या छठी क्लास में था। उस समय सरकारी स्कूल में मैं पढ़ता था। उस समय प्राइवेट स्कूल यानि निजी स्कूल नहीं खुले थे। सभी सरकारी स्कूल ही होते थे। हां उनमें कुछ कन्या विद्यालय होते थे जिनकी प्राथमिकता लड़कियों को स्कूल में एडमिशन कराना और उनकी शिक्षा व्यवस्था करना होता था। खैर मैं भी एक माध्यमिक स्कूल में पढ़ता था। 

मेरी नियमित दिनचर्या ऐसी थी कि स्कूल खुलने के करीब आधा पौन घंटा पहले ही स्कूल पहुंच जाता था। मेरा स्कूल मुख्य बाजार में था। गांव के मुख्य बाजार में अनाज मंडी थी वहीं यह अवस्थित था। स्कूल का नाम था उच्च माध्यमिक स्कूल, चकसलेम। यह समस्तीपुर जिले अवस्थित शाहपुर पटोरी गांव में आता है। इसके आस पास पूरा बाजार था। यानि अनाज मंडी के साथ साथ ज्वेलर्स के दुकान भी थे। उसी के मध्य यह अवस्थित था। तो मैं नियमत: उस दिन भी स्कूल पहुंच गया था। उस समय स्कूल में एक दो लड़के ही आए हुए थे। कुछ देर बाद एक लड़का आया जो मेरे ही पड़ोस में रहता था उसका नाम था मुन्ना। मुझसे आते ही बोला कि आज सिनेमा देखने जाऊंगा। मैंने बोला कि वह तो 11 बजे शुरु होगा। तो वह बोला कि मैं अभी निकल जाउंगा। तुम चलोगे? मैं डर रहा था। बोला नहीं। किसी ने देख लिया तो घर पर शिकायत हो जाएगी और पिटाई भी लगेगी। बोला अभी कोई ज्यादा लड़के आए नहीं हैं और हम स्कूल के पिछवाड़े से निकल जाएंगे। किसी को पता नहीं चलेगा। फिर मुझसे बोला कि फिल्म का नाम शोले है। इसमें दो इंटरवल आएंगे। शोले का नाम सुनते ही मैं चौंक गया। क्योंकि यदाकदा शादी ब्याह के अवसरों पर उस समय लाउडस्पीकर पर शोले फिल्म के डायलॉग बजा करते थे। लोग बड़े ही चाव से सुनते थे। मैं शुरु से ही फिल्मों में दिलचस्पी रखता था। खासकर शोले मेरी फेवरिट फिल्म थी। मैंने कहा कि टिकट कितने की है। उस समय सिनेमा हॉल में तीन प्रकार के टिकट होते थे। फर्स्ट क्लास, सेकेंड क्लास और स्पेशल क्लास। फर्स्ट क्लास सबसे आगे और सेकेंड क्लास उसके पीछे। स्पेशल क्लास सबसे पीछे होता था। पैसे भी कम थे। फर्स्ट क्लास के दो रुपए और सेकेंड क्लास के तीन रुपए। स्पेशल क्लास के चार या पांच रूपए। मुन्ना ने मुझसे पूछा कि तुम्हारे पास कितने रूपए हैं। मैंने कहा कि मेरे पास दो रूपए हैं। तो उसने बोला कि काम हो जाएगा। फर्स्ट क्लास का दो टिकट ले लेंगे। मैंने कहा फिर निकल चलो। और धीरे से स्कूल के पिछवाड़े से निकल गया। स्कूल के दो मकान थे। एक मकान में चार कमरे थे। और दूसरे में दो कमरे। दो कमरे वाले में एक प्रधानाचार्य का ऑफिस था। बाकी के कमरों में पढ़ाई होती थी। बरामदे पर पहली से लेकर चौथी तक के बच्चे बैठते थे। बाकी के कमरों में पांचवी से आठवीं तक की पढ़ाई होती थी। तो उन्हीं चार कमरों वाले मकान के बगल में एक पतली से गली थी जिससे होकर सिर्फ एक आदमी आ जा सकता था। हम उसी से होकर निकल गए। 

अब समस्या थी कि बस्ता कहां छुपाया जाए। रास्ते में एक ईंटों का ढेर मिला। उसी में हमने दो तीन ईंट इस तरह निकाले की हमारा बस्ता आराम से अंदर फिट बैठ गया। फिर उसे उसी तरह ढंक दिया। सिनेमा हॉल के पिछले वाले दरवाजे से हमलोग उसके कैम्पस में पहुंचे। जबरदस्त भीड़ भी। ऐसी पहली फिल्म थी जिसमें दो इंटरवल थे। अब हम एक दूसरे के साथ पीछे ही खड़े थे। मुख्य गेट के पास जाने पर किसी भी पहचान वाले की नजर में आने का डर था। मुन्ना ने समझाया कि फर्स्ट क्लास का टिकट लेकर सबसे पहले गेट से घुसना। और पीछे वाले सीट पर कब्जा जमाना। क्योंकि फर्स्ट क्लास के तीन चार रॉ ही होते थे। इसके बाद सेकेंड क्लास शुरु होती थी। तो सेकेंड क्लास के अंतिम पंक्ति के बाद की सीट मिलने पर मजा सेकेंड क्लास वाली आती। खैर टिकट काउंटर पर हम लोग दोनों लाइन में लग गए। दोनों इसलिए कि जिसका पहला नंबर आएगा उसे टिकट जल्दी मिल जाएगी तो जल्दी हॉल में घुस सकेंगे। संयोग से मुन्ना को पहले टिकट मिल गई। हम जल्दी से भागकर मुख्य गेट पर पहुंचे। जहां ग्रिल लगी हुई थी। हम सबसे पहले गेट पर हॉल की तरफ मुंह किए हुए थे ताकि किसी की नजर न मिल सके। गेट मैन को जल्दी खोलने के लिए हल्ला मचाने लगे। काफी देर बाद गेट खुली और मैं टिकट लेकर गेटमैन जो फर्स्टक्लास वाला था उसके पास गया और मुन्ना सीट पर कब्जा जाने के लिए। मैंने गेटमैन को बोला कि यह मेरे साथ है और दो टिकट दिखाए। वह गया तब तक मैं भी पीछे आ गया। संयोग से जो सीट हमें चाहिए थी वह मिली। एकदम कोने वाली। वह सेफ भी थी क्योंकि वहां पर कोई गेट नहीं था। अंधेरा था और पीछे भी था। खैर फिल्म 11 बजे शुरु हो गई। जैसे ही फिल्म में नाम आने लगे तो मैं चौंक गया। इसमें अमिताभ बच्चन का नाम तो है ही नहीं। तो मुन्ना ने बोला कि अमिताभ बच्चन इसमें हीरो नहीं है। वह हीरो का साथी है। सबसे अंत में नाम आया और मैं उसे देखकर कुछ आश्वस्त हुआ। फिर फिल्म देखी। इंटरवल के समय 50 पैसे के दो पैकेट चना लिए। उस समय 50 पैसे में चना जिसे हमलोग चनाजोर गरम बुलाते थे मिलता था। उसमें चना, ममरा, प्याज, मिर्च, थोड़ी सी गरम मसाला और तेल मिलाकर बनाते थे। इसे खाने के बाद एक घंटे तक की भूख तो जरूर मिट जाती थी। इसी तरह दूसरे इंटरवल में ममरा की मिठाई खाई। यह भी उस समय काफी हद तक भूख मिटाने का साधन था। बच्चों के लिए। 

फिल्म तो 3 बजे तक खत्म हो गई। अब हम फिर से चोरी छिपे हॉल से निकले और वहीं पिछवाड़े वाला रास्ता पकड़कर स्कूल के पीछे पहुंचे जहां पर हमारा बस्ता छिपा हुआ था। स्कूल में छुट्‌टी तो चार बजे होती थी। अब हम क्या करते तो बस्ता लिया और एक दूसरा रास्ता पकड़ा। हमारे गांव के पास एक नदी बहती थी। वह बरसाती नदी थी लेकिन साल में सिर्फ गर्मी के दिनों में सूखी रहती थी बाकी दिनों में उसमें पानी कम ज्यादा बहती रहती थी। उसके किनारे किनारे एक रास्ता था जो भीड़ भाड़ वाला नहीं था। हमलोग ज्यादातर उसी रास्ते का इस्तेमाल करते थे स्कूल जाने और आने में। क्योंकि इसमें गाड़ियों का डर नहीं होता और जल्दी पहुंच भी जाते थे। उसी रास्ते में हमलोग धीरे धीरे घूमते हुए आधा रास्ता पार किया। अब समय तो पास करना ही था। क्योंकि स्कूल के समय से पहले घर पहुंच जाते तो सभी को लगता की जरूर कुछ गड़बड़ है। तो एक जगह बरगद का बहुत बड़ा पेड़ था। उसी के पास रूके। बरगद के पेड़ से लटकते हुए टहनियों पर झूला झुले। काफी देर बैठे बातें की और फिर जब लगा कि अब स्कूल में छुट़्टी हो गई होगी तो आगे बढ़े। धीरे धीरे घर पहुंचे तो समय काफी हो गया यानि स्कूल टाइम के पास ही हो गया और किसी को कुछ पता नहीं चला। 

दूसरे दिन स्कूल आया तो टीचर पूछने लगे कि कल क्यों नहीं आया। झूठा बहाना बनाया कि तबीयत खराब थी। लेकिन एक दो लड़कों ने बोला कि मैं स्कूल आया था। चूंकि उस समय मैं स्कूल बंक नहीं करता था इसलिए टीचर को मुझ पर विश्वास था। बात रफा दफा हो गई।  फिर तो यह एक सिलसिला ही चल निकला स्कूल बंक करने का। कुछ दिनों पश्चात एक शो में पकड़ा गया और फिर उसके बाद यह मामला खत्म हुआ। उसके बाद स्कूल बंक करके फिल्म देखने की आदत छूट गई। 




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